Monday, November 21, 2011

मेरी शायरी

किसी का भरोसा तोड़ के आखिर कहाँ जाओगे ...
खुद अपनी ही नज़रों में गिरते चले जाओंगे......

खुदा भी ना बक्शेगा तुम्हारी इस बद नीयत को ....
जहन्नुम के दरवाजे से भी महरूम  रह जाओगे ......
किसी का विश्वास तोड़ के आखिर कहाँ जाओगे ...
खुद अपनी ही नज़रों में गिरते चले जाओंगे......
हमको तो वो बिछड़े हुए याराने याद आते है ......
तन्हाई के इस दौर मैं वो गुज़रे हुए ज़माने याद आते है ....
आदमी मुसाफिर है आखिर कहाँ तक जाएगा ......
लौट कर वापस अपने घर तक जरूर आएगा ........
देना ही है मुझको तो एक हसीं ख्वाब दे दो ....
हाथों में मेरे एक खिलता हुआ गुलाब दे दो ......
मैं एक शायर अनजाना सा फिरता हूँ मैं बेगाना सा ......
न जाने किसका लिख रहा हूँ मैं एक अफसाना सा .....
मैं एक शायर अनजाना सा फिरता हूँ मैं बेगाना सा ......
जाने न किसका लिख रहा हूँ मैं एक अफसाना सा .....
 
 
 
 
 
 
 

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