वेदों के अनुसार धर्म के पथ पर चलने वाले मनुष्य में धर्म के दस लक्षण होते हैं। पहला लक्षण है धृति , जिसका अर्थ है - धैर्य। मनुष्य के लिए किसी भी अवस्था में विचलित होना उचित नहीं है। उसे सदैव शांत रहना चाहिए और भविष्य की चुनौतियों ( तकलीफों ) के लिए भी तैयार रहना चाहिए। विपत्ति के समय सबसे बड़ी योग्यता है - धैर्य। धार्मिक व्यक्ति का प्रधान लक्षण धैर्य है।
दूसरा लक्षण है - क्षमा। क्षमा क्या है ? किसी के लिए प्रतिशोध की भावना नहीं रखना ही क्षमा है। किसी ने कभी हमारे साथ शत्रुता की है , इसलिए उससे बदला लेने की भावना ठीक नहीं है। धार्मिक व्यक्ति इस तरह की भावना से ऊपर उठ जाते हैं। जब वे देखते हैं कि अन्यायी का स्वभाव सुधर गया है तो उसे वे क्षमा कर देते हैं।
दमन का अर्थ है स्वयं पर शासन करना और शमन का अर्थ है दूसरों पर शासन करना। जो स्वयं पर शासन कर के , स्वयं को नियंत्रित करते हैं - वही आत्मानुशासन या आत्मदमन कर सकते हैं। जो स्वयं को नियंत्रित करते हैं , वे अपने किसी भी भावना को नियंत्रित कर सकते हैं , मसलन मन में यदि किसी को क्षति पहुंचाने की इच्छा हो तो उस इच्छा का वे अपने मन की शक्ति से दमन कर सकते हैं।
इसके बाद हुआ - अस्तेय। अस्तेय का अर्थ है - चोरी नहीं करना। चोरी दो प्रकार की है - बाहर की चोरी और भीतर की चोरी। बाहर की चोरी हुई दूसरे की संपत्ति उसकी नजर से बचा कर ले लेना। और भीतर की चोरी हुई , मन ही मन उसे हथिया लेने की इच्छा करना। इस भीतरी चोरी से किसी की क्षति नहीं हुई , यह बात ठीक है , परंतु तुम चोर बन गए। लज्जा या भय के कारण या सुयोग नहीं पाने के कारण हाथ से चोरी नहीं की , परमन में तो चोर था।
शौच का अर्थ है - शुद्धता , सफाई। सिर्फ स्नान करने और वस्त्र बदलने से ही सफाई नहीं हो जाती। वह एक प्रकार की सफाई है। पर असल सफाई है - मन को शुद्ध रखना , निर्मल रखना। इसका क्या उपाय है ? मन को शुुद्ध रखने का उपाय है उसे सत्कर्मों में लगा कर रखना। यदि बाहर होगी जनसेवा और भीतर रहेगी श्रद्धा , तो मन अवश्य शुद्ध होगा।
उसके बाद है इंद्रिय निग्रह। इंद्रिय निग्रह का अर्थ है - सभी कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण। इससे क्या होगा ? आवश्यकता समझने पर अपने सभी इंद्रियों का काम बंद करके मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर एकाग्र हो सकता है। यह स्थिति ध्यान और प्रार्थना के लिए अनुकूल होती है। इसीलिए प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है।
सातवां लक्षण मेधा को बताया गया है। इसे भक्त अपनी साधना के द्वारा जगाता है। मान लो एक व्यक्ति चुपचाप बैठा हुआ है ; उस समय उसने सोचा कि अपने इष्ट का भी कुछ देर तक स्मरण कर लंू। लेकिन इष्ट का स्मरण करते - करते हठात मन में चाय की इच्छा घुस पड़ी और इष्ट का नाम बंद हो गया। लेकिन यदि उसमें मेधा जागृत हो चुकी है तो ऐसा नहीं होगा। वह स्थिर चित से अपने इष्ट की प्रार्थना करता रहेगा।
अगला लक्षण है विद्या जो मेधा से अलग है। जो ज्ञान मनुष्य को परमार्थ की ओर ले जाता है , उसको कहते हैं विद्या। और जो ज्ञान मनुष्य को जगत की ओर ले जाता है , उसे कहा जाता है - अविद्या। और सत्य के बारे में तो तुम सभी जानते हो। लोगों के हित की भावना लेकर मनुष्य जो भी सोचेगा या बोलेगा वही सत्य है। अंतिम हुआ - अक्रोध। बुद्धिमान व्यक्ति अक्रोध करेेंगे। इसलिए अगर तुम चतुर हो तो क्रोधी मत होओ। इन दस लक्षणों का समन्वय ही हुआ धर्म का ज्ञान , जो प्रत्येक धार्मिक मनुष्य में होना अनिवार्य है।
दूसरा लक्षण है - क्षमा। क्षमा क्या है ? किसी के लिए प्रतिशोध की भावना नहीं रखना ही क्षमा है। किसी ने कभी हमारे साथ शत्रुता की है , इसलिए उससे बदला लेने की भावना ठीक नहीं है। धार्मिक व्यक्ति इस तरह की भावना से ऊपर उठ जाते हैं। जब वे देखते हैं कि अन्यायी का स्वभाव सुधर गया है तो उसे वे क्षमा कर देते हैं।
दमन का अर्थ है स्वयं पर शासन करना और शमन का अर्थ है दूसरों पर शासन करना। जो स्वयं पर शासन कर के , स्वयं को नियंत्रित करते हैं - वही आत्मानुशासन या आत्मदमन कर सकते हैं। जो स्वयं को नियंत्रित करते हैं , वे अपने किसी भी भावना को नियंत्रित कर सकते हैं , मसलन मन में यदि किसी को क्षति पहुंचाने की इच्छा हो तो उस इच्छा का वे अपने मन की शक्ति से दमन कर सकते हैं।
इसके बाद हुआ - अस्तेय। अस्तेय का अर्थ है - चोरी नहीं करना। चोरी दो प्रकार की है - बाहर की चोरी और भीतर की चोरी। बाहर की चोरी हुई दूसरे की संपत्ति उसकी नजर से बचा कर ले लेना। और भीतर की चोरी हुई , मन ही मन उसे हथिया लेने की इच्छा करना। इस भीतरी चोरी से किसी की क्षति नहीं हुई , यह बात ठीक है , परंतु तुम चोर बन गए। लज्जा या भय के कारण या सुयोग नहीं पाने के कारण हाथ से चोरी नहीं की , परमन में तो चोर था।
शौच का अर्थ है - शुद्धता , सफाई। सिर्फ स्नान करने और वस्त्र बदलने से ही सफाई नहीं हो जाती। वह एक प्रकार की सफाई है। पर असल सफाई है - मन को शुद्ध रखना , निर्मल रखना। इसका क्या उपाय है ? मन को शुुद्ध रखने का उपाय है उसे सत्कर्मों में लगा कर रखना। यदि बाहर होगी जनसेवा और भीतर रहेगी श्रद्धा , तो मन अवश्य शुद्ध होगा।
उसके बाद है इंद्रिय निग्रह। इंद्रिय निग्रह का अर्थ है - सभी कर्मेंद्रियों और ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण। इससे क्या होगा ? आवश्यकता समझने पर अपने सभी इंद्रियों का काम बंद करके मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर एकाग्र हो सकता है। यह स्थिति ध्यान और प्रार्थना के लिए अनुकूल होती है। इसीलिए प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है।
सातवां लक्षण मेधा को बताया गया है। इसे भक्त अपनी साधना के द्वारा जगाता है। मान लो एक व्यक्ति चुपचाप बैठा हुआ है ; उस समय उसने सोचा कि अपने इष्ट का भी कुछ देर तक स्मरण कर लंू। लेकिन इष्ट का स्मरण करते - करते हठात मन में चाय की इच्छा घुस पड़ी और इष्ट का नाम बंद हो गया। लेकिन यदि उसमें मेधा जागृत हो चुकी है तो ऐसा नहीं होगा। वह स्थिर चित से अपने इष्ट की प्रार्थना करता रहेगा।
अगला लक्षण है विद्या जो मेधा से अलग है। जो ज्ञान मनुष्य को परमार्थ की ओर ले जाता है , उसको कहते हैं विद्या। और जो ज्ञान मनुष्य को जगत की ओर ले जाता है , उसे कहा जाता है - अविद्या। और सत्य के बारे में तो तुम सभी जानते हो। लोगों के हित की भावना लेकर मनुष्य जो भी सोचेगा या बोलेगा वही सत्य है। अंतिम हुआ - अक्रोध। बुद्धिमान व्यक्ति अक्रोध करेेंगे। इसलिए अगर तुम चतुर हो तो क्रोधी मत होओ। इन दस लक्षणों का समन्वय ही हुआ धर्म का ज्ञान , जो प्रत्येक धार्मिक मनुष्य में होना अनिवार्य है।
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